रुस्वा हुए ज़लील हुए दर-ब-दर हुए हक़ बात लब पे आई तो हम बे-हुनर हुए कल तक जहाँ में जिन को कोई पूछता न था इस शहर-ए-बे-चराग़ में वो मो'तबर हुए बढ़ने लगी हैं और ज़मानों की दूरियाँ यूँ फ़ासले तो आज बहुत मुख़्तसर हुए दिल के मकाँ से ख़ौफ़ के साए न छट सके रस्ते तो दूर दूर तलक बे-ख़तर हुए अब के सफ़र में दर्द के पहलू अजीब हैं जो लोग हम-ख़याल न थे हम-सफ़र हुए बदला जो रंग वक़्त ने मंज़र बदल गए आहन-मिसाल लोग भी ज़ेर-ओ-ज़बर हुए
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