साँसों से ये कह दो कि ठहर जाएँ किसी दिन इस दिल पे करम इतना तो फ़रमाएँ किसी दिन ये दिल कि जिसे रौंद के हर लम्हा गया है परचम सा उठा कर इसे लहराएँ किसी दिन मुमकिन है मिरे ज़र्फ़ का तख़्मीना लगाना इस क़ाफ़िला-ए-दर्द को ठहराएँ किसी दिन इस पे भी गिराँ गुज़रेगी ये ख़ू-ए-जफ़ा 'सोज़' गर यार भी अपनी पे उतर आएँ किसी दिन