सब आसान हुआ जाता है मुश्किल वक़्त तो अब आया है जिस दिन से वो जुदा हुआ है मैं ने जिस्म नहीं पहना है कोई दराड़ नहीं है शब में फिर ये उजाला सा कैसा है बरसों का बछड़ा हुआ साया अब आहट ले कर लौटा है अपने आप से डरने वाला किस पे भरोसा कर सकता है एक महाज़ पे हारे हैं हम ये रिश्ता क्या कम रिश्ता है क़ुर्ब का लम्हा तो यारों को चुप करने में गुज़र जाता है सूरज से शर्तें रखता हूँ घर में चराग़ नहीं जलता है दुख की बात तो ये है 'शारिक़' उस का वहम भी सच निकला है