सब हैं मसरूफ़ किसी को यहाँ फ़ुर्सत नहीं है सब ज़रूरत है मगर कार-ए-ज़रूरत नहीं है तुझ से दुश्नाम-तराज़ों की हिमायत के लिए अब मिरे पास कोई हर्फ़-ए-सुहूलत नहीं है रोज़ इक हश्र बपा करते थे जिस की ख़ातिर हम ये सुनते हैं कि वो फ़ित्ना-ए-क़ामत नहीं है अक्स-ए-रम-साज़ी-ए-वहशत से उसे है निस्बत अब तो आईनों को पहली सी वो हैरत नहीं है किस लिए तर्क-ए-तअ'ल्लुक़ पे नदामत है तुझे ऐ मिरी जान मुझे कोई शिकायत नहीं है रक़्स-ए-आशोब अजब देखा है गलियों में तिरी ऐ मिरे शहर यहाँ कोई सलामत नहीं है हुक्म है ख़ाना-ए-वहशत के मकीनों से कहो अब यहाँ साँस भी लेने की इजाज़त नहीं है ख़ूँ-बहा माँगने वालों को नदामत है बहुत मेरे क़ातिल को मगर कोई नदामत नहीं है रम्ज़-ओ-असरार से ख़ाली नहीं होते मिरे शे'र ये अलग बात कि 'शाहिद' को वो शोहरत नहीं है