सब क़रीने उसी दिलदार के रख देते हैं हम ग़ज़ल में भी हुनर यार के रख देते हैं शायद आ जाएँ कभी चश्म-ए-ख़रीदार में हम जान ओ दिल बीच में बाज़ार के रख देते हैं ताकि ता'ना न मिले हम को तुनुक-ज़र्फ़ी का हम क़दह सामने अग़्यार के रख देते हैं अब किसे रंज-ए-असीरी कि क़फ़स में सय्याद सारे मंज़र गुल-ओ-गुलज़ार के रख देते हैं ज़िक्र-ए-जानाँ में ये दुनिया को कहाँ ले आए लोग क्यूँ मसअले बेकार के रख देते हैं वक़्त वो रंग दिखाता है कि अहल-ए-दिल भी ताक़-ए-निस्याँ पे सुख़न यार के रख देते हैं ज़िंदगी तेरी अमानत है मगर क्या कीजे लोग ये बोझ भी थक-हार के रख देते हैं हम तो चाहत में भी 'ग़ालिब' के मुक़ल्लिद हैं 'फ़राज़' जिस पे मरते हैं उसे मार के रख देते हैं