सब की आवाज़ में आवाज़ मिला रक्खी है अपनी पहचान मगर सब से जुदा रक्खी है जाने किस राह से आ जाए वो आने वाला मैं ने हर सम्त से दीवार गिरा रक्खी है ऐसा होता है कि पत्थर भी पिघल जाता है तू ने सीने में मगर चीज़ ये क्या रक्खी है ज़ख़्म-ख़ुर्दा सही अफ़्सुर्दा सही अपनी जबीं जैसी भी है तेरी दहलीज़ पे ला रक्खी है उस ने मुझ से भी तिरी सारी कहानी कह दी जिस ने तुझ को मिरी हर बात सुना रक्खी है मेरे सीने में 'मुनव्वर' है उसी शोख़ का ग़म जिस के सीने में मिरे ग़म की दवा रक्खी है