सब लोग लिए संग-ए-मलामत निकल आए किस शहर में हम अहल-ए-मोहब्बत निकल आए अब दिल की तमन्ना है तो ऐ काश यही हो आँसू की जगह आँख से हसरत निकल आए हर घर का दिया गुल न करो तुम कि न जाने किस बाम से ख़ुर्शीद-ए-क़यामत निकल आए जो दरपय-ए-पिंदार हैं उन क़त्ल-गहों से जाँ दे के भी समझो कि सलामत निकल आए ऐ हम-नफ़सो कुछ तो कहो अहद-ए-सितम की इक हर्फ़ से मुमकिन है हिकायत निकल आए यारो मुझे मस्लूब करो तुम कि मिरे बाद शायद कि तुम्हारा क़द-ओ-क़ामत निकल आए