सब ने देखा मुझे उठता हुआ मेरे घर से पेच-दर-पेच वो ख़ामोश धुआँ मैं ही था सच का ज़हर गवारा न किसी को भी हुआ तल्ख़ी-ए-ज़ाएक़ा-ए-काम-ओ-ज़बाँ मैं ही था ख़ुद ही प्यासा था भला प्यास बुझाता किस की सर पे सूरज को लिए अब्र-ए-रवाँ मैं ही था दर पे इक क़ुफ़्ल पुर असरार पड़ा था 'अजमल' भेद खुलता भी तो कैसे कि मकाँ मैं ही था