सब से बेहतर है कि मुझ पर मेहरबाँ कोई न हो हम-नशीं कोई न हो और राज़-दाँ कोई न हो मरिए इस हसरत में गर क़ातिल न हाथ आवे कहीं रोइए अपने पे ख़ुद गर नौहा-ख़्वाँ कोई न हो बीच में है मेरे उस के तू ही ऐ आह-ए-हज़ीं सुल्ह क्यूँकर होवे जब तक दरमियाँ कोई न हो शिकवा किस से कीजिए ख़ालिक़ की मर्ज़ी है यही नुक्ता-चीं पैदा हों लाखों नुक्ता-दाँ कोई न हो मुझ तलक क़ातिल तो क़ातिल मौत भी आती नहीं किस को दीजे जान जब ख़्वाहान-ए-जाँ कोई न हो माने गर कोई नसीहत 'आरिफ़'-ए-दिल-ख़स्ता की भूल कर भी वाला-ए-आतिश-बजाँ कोई न हो