सब थे मंज़ूर-ए-नज़र एक मैं रुस्वा था फ़क़त थे तमाशाई सभी मैं ही तमाशा था फ़क़त सामने हद्द-ए-नज़र तक मिरे सहरा था फ़क़त और ये नज़्ज़ारा ही जीने का सहारा था फ़क़त उस की दौलत की तमन्ना मिरी दुश्मन निकली मेरे क़ब्ज़े में मोहब्बत का ख़ज़ाना था फ़क़त ऐसा महसूस हुआ जैसे कि तू आया था दर-हक़ीक़त तिरे साए का भी साया था फ़क़त मैं ये समझा था हैं अफ़्लाक मिरी मुट्ठी में क़ब्र बोली कि तू इक ख़ाक का पुतला था फ़क़त रुत्बा साक़ी का था तेरे ही तो दम से 'जावेद' एक तू ही तो भरी बज़्म में प्यासा था फ़क़त