सबा में था न दिल-आवेज़ी-ए-बहार में था वो इक इशारा कि इस चश्म-ए-वज़्अ-दार में था गुज़र कुछ और भी आहिस्ता ऐ निगार-ए-विसाल कि एक उम्र से मैं तेरे इंतिज़ार में था हवा-ए-दहर की ज़द में भी आ के बुझ न सकी बला का हौसला इक शम्-ए-रहगुज़ार में था हम अपनी धुन में चले आए जानिब-ए-मंज़िल पलट के देखा तो इक कारवाँ ग़ुबार में था मिला तो फूल खिल उठ्ठे थे शाख़-ए-मिज़्गाँ पर जुदा हुआ तो लहू चश्म-ए-अश्क-बार में था तुझे पुकार के चुप हो गए हैं दीवाने बस एक नारा-ए-मस्ताना इख़्तियार में था अब इक किरन भी नहीं नीम-वा दरीचे में ख़ुशा वो दिन कि कोई मेरे इंतिज़ार में था हवा-ए-कम-निगही ने बुझा दिया वर्ना में वो चराग़ कि रौशन हरीम-ए-यार में था तिरी निगाह से ओझल सही मगर 'मोहसिन' ख़िज़ाँ का अक्स भी आईना-ए-बहार में था