सबब कुछ बे-ख़ुदी का आज हो सब पर अयाँ अपना सुनाया है मोहब्बत ने हमें दर्द-ए-निहाँ अपना अबस हैं सरहदों के तख़्त के ताजों के ये झगड़े ज़मीं अपनी नहीं है ना रहा ये आसमाँ अपना मुकद्दर है फ़ज़ा तेरे जहाँ की मोहतरम इंसाँ बसाया है किताबों में हसीं दिलकश जहाँ अपना पशेमाँ हो ही जाएँगे अलामत की ज़बाँ वाले रुलाएगा किसी दिन जब उन्हें रंग-ए-बयाँ अपना कि तक़्सीम-ए-अज़ल पर हम तो शाकिर हैं यहाँ 'सुग़रा' ख़ुदाया रहमतें तेरी गुनाह-ए-बे-अमाँ अपना