सब्ज़ शाख़ों पे ज़माने की नज़र होती है किस को सूखे हुए पत्तों की ख़बर होती है सदफ़-ए-चश्म से बाहर जो न आने पाए बूँद अश्कों की वही मिस्ल-ए-गुहर होती है याद ग़ुर्बत में जब आती है वतन की मुझ को ना-गहाँ आँख मिरी अश्कों से तर होती है दफ़अ'तन दिल का हर इक ज़ख़्म उभर जाता है जब भी तस्वीर तिरी पेश-ए-नज़र होती है शाम होते ही सुलग जाते हैं हर घर में चराग़ डूब जाते हैं सितारे तो सहर होती है फूल तो फूल हैं पत्ते नहीं उगते जिन में ऐसे पेड़ों से भी उमीद-ए-समर होती है ऐब-जूई में शब-ओ-रोज़ गुज़ारें जो 'असर' अपने किरदार पे कब उन की नज़र होती है