सब्ज़ा-ए-ख़त है पयम्बर रुख़ है क़ुरआन-ए-बहार तू है क़िबला तू है का'बा तू है ईमान-ए-बहार मेरे रोने से हुई फ़स्ल गुलिस्तान-ए-बहार हो गया मीज़ाब-दीदा मीर सामान-ए-बहार सर्व को जोगी समझ कर फ़ाल खुलवाने लगी क्या ख़िज़ाँ में रहते हैं बुलबुल को अरमान-ए-बहार शाख़-ए-गुल जुम्बिश कहाँ करते हैं मतवालों की तरह बुलबुलों के बोसे ले लेते हैं मस्तान-ए-बहार हिज्र-ए-बे-उम्मीद-ए-वसलत में कोई जीना भी है बुलबुलों के होते हैं कुछ अहद-ओ-पैमान-ए-बहार सर्व के मिसरे के मा'नी बुलबुलों से पूछ लो अंदलीबों से सुनो शरह-ए-गुलिस्तान-ए-बहार ज़ुल्फ़-ए-गुल रो के गले मिल कर जो आएगी 'नसीम' होगी सुम्बुल अफ़ई-ए-गंज-ए-शहीदान-ए-बहार