सब्र कर दिल-ए-नादाँ किस लिए तू रोता है बेवफ़ा ज़माने में कौन किस का होता है जिस को मैं ने बख़्शे हैं फूल शादमानी के अब वही मिरे दिल में ख़ार-ए-ग़म चुभोता है ना-मुराद अश्कों से तर तो हो गया दामन हाँ मगर लहू दिल का दिल के ज़ख़्म धोता है कार-गाह-ए-हस्ती में मुतमइन नहीं कोई देख कर हर इक सूरत आइना भी रोता है वक़्त यूँ उतर आया ज़ुल्म के तरीक़े पर रोज़ ख़ून-ए-इंसाँ से आस्तीं भिगोता है जो भी ईमाँ रखता है मस्लहत-परस्ती पर गुलशन-ए-मोहब्बत में ग़म के बीज बोता है आइना हक़ीक़त का रख के सामने देखे आदमी ज़माने में ख़ुद वक़ार खोता है इस क़दर बढ़ी 'अरशद' ज़िंदगी की हैरानी आज-कल हर इक इंसाँ रोते रोते सोता है