सदा रही हो भले कितनी बे-क़रार उस की मुझी तक आ के रुकी है सदा पुकार उस की चमन गवारा करे उम्र ख़ुश-गवारी में खिला रही है जो गुल शाख़-ए-नौ-बहार उस की गुज़रता है तो अजब ख़ुशबुएँ बिखेरता है क़दम क़दम पे महकती है रहगुज़ार उस की थमाए थमता नहीं दर्द मेरे सीने का रुकाए रुकती नहीं आँसूओं की धार उस की सँवारता है बहुत ख़म तू उस की ज़ुल्फ़ों के कभी तो बहर-ए-ख़ुदा आदतें सुधार उस की क़बा मियान है उस की कि भूल से भी कहीं किसी बदन को न लग जाए तेज़ धार उस की