सदाओं के जंगल में वो ख़ामुशी है कि मैं ने हर आवाज़ तेरी सुनी है उदासी के आँगन में तेरी तलब की अजब ख़ुशनुमा इक कली खिल रही है नया रंग था उस का कल वक़्त-ए-रुख़्सत कि जैसे किसी बात पर बरहमी है उसे दे के सब कुछ मैं ये सोचता हूँ उसे और क्या दूँ अभी कुछ कमी है वही लम्हा लम्हा लहकना अभी तक अभी तक उसी याद की शोलगी है सबीलें मिरे नाम की और भी हैं मगर प्यास मुझ को तिरी बूँद की है तिरा नाम लूँ सामने सब के 'हाली' ये चाहत मिरे दिल को अब काटती है