सफ़र हुआ न कभी ख़त्म बहते पानी का मैं बूँद बूँद समुंदर बना रवानी का ये कह रही है मिरे बर्ग बर्ग की ख़ुशबू गुल-ए-शफ़क़ हूँ मैं असरार-ए-आसमानी का हसीन होंटों की जुम्बिश से खिल उठे चेहरे फ़ज़ा में फैल गया रंग ख़ुश-बयानी का ज़बान-ए-वक़्त ने दोहरा के कर दिया मक़्बूल फ़साना मेरी नज़र और तिरी जवानी का कहे बग़ैर ही हर बात वो समझता है अजब शुऊ'र है उस में मिज़ाज-दानी का घुटन का नाम न हो इम्बिसात हो जिस में करें तलाश वो माहौल ज़िंदगानी का ज़बान-ए-शेर से हर हाल कह चला हूँ मगर गिला है फिर भी उन्हें मेरी बे-ज़बानी का ज़बान-ए-वक़्त पे है जिस का लहजा-ए-आवाज़ वो शख़्स ही तो है हीरो मिरी कहानी का हयात-ओ-मौत की मंज़िल से भी गुज़र कर 'साज़' हुआ न ख़त्म सफ़र रूह की रवानी का