सफ़र का शौक़ न मंज़िल की जुस्तुजू बाक़ी मुसाफ़िरों के बदन में नहीं लहू बाक़ी तमाम रात हवाओं का गश्त जारी था सवेरे तक न रहा कोई हू-ब-हू बाक़ी सभी तरह से तआ'रुफ़ तो हो गया उन का रही है अब तो मुलाक़ात रू-ब-रू बाक़ी जो भीड़ बिखरे तो देखूँ तलब ये कैसी है दयार-ए-ग़ैर में है किस की जुस्तुजू बाक़ी वही नज़ारे वही गर्मी-ए-सुख़न है मगर न ही वो बात न वो तर्ज़-ए-गुफ़्तुगू बाक़ी ज़माना मुझ से जुदा हो गया ज़माना हुआ रहा है अब तो बिछड़ने को मुझ से तू बाक़ी उसी लिहाज़ का 'आबिद' मलाल है हम को रहा न आज जो दौरान-ए-गुफ़्तुगू बाक़ी