सफ़र में है जो अज़ल से ये वो बला ही न हो किवाड़ खोल के देखो कहीं हवा ही न हो निगाह-ए-आईना मालूम अक्स ना-मालूम दिखाई देता है जो असल में छुपा ही न हो ज़मीं के गिर्द भी पानी ज़मीं की तह में भी ये शहर जम के खड़ा है जो तैरता ही न हो न जा कि इस से परे दश्त-ए-मर्ग हो शायद पलटना चाहें वहाँ से तो रास्ता ही न हो मैं इस ख़याल से जाता नहीं वतन की तरफ़ कि मुझ को देख के उस बुत का जी बुरा ही न हो कटी है जिस के ख़यालों में उम्र अपनी 'मुनीर' मज़ा तो जब है कि उस शोख़ को पता ही न हो