सफ़र तवील हो और रहनुमा ख़राब न हो तो मंज़िलों का कभी ज़ाइक़ा ख़राब न हो हम इज़्तिराब में हैं जंग कैसे रुक जाए तुम्हें ये फ़िक्र के बस क़ाएदा ख़राब न हो हर एक रंग फिर उस दिल को रास आता है जो देखने का अगर ज़ाविया ख़राब न हो कोई भी नाम तिरे बाद हम नहीं लेते गुरेज़ करते हैं के ज़ाइक़ा ख़राब न हो तमाम ज़िंदगी गुज़री हो चाहे जैसी भी ये पेश-ओ-पस है के बस ख़ात्मा ख़राब न हो ये सोच कर के कभी झूट बोल लेते हैं हर एक शख़्स से अब राब्ता ख़राब न हो अजीब शख़्स है 'इरफ़ान' हम से चाहता है के पेड़ काट दें और घोंसला ख़राब न हो