तबीअ'त बुझ गई जब से तिरे दीदार को तरसे अगर अब नींद भी आती है उठ जाते हैं बिस्तर से हमें मा'शूक़ को अपना बनाना तक नहीं आता बनाने वाले आईना बना लेते हैं पत्थर से ज़बाँ से आह निकली दिल से नाला आँखों से आँसू मगर इक तेरी धुन है जो निकलती ही नहीं सर से अरे नादान सच्चा चाहने वाला नहीं मिलता वो लैला थी कि जिस को मिल गया मजनूँ मुक़द्दर से मिलन-सारी भी सीखो जब निगाह-ए-नाज़ पाई है मिरी जाँ आदमी अख़्लाक़ से तलवार जौहर से ख़ुदा की शान मतलब-आश्ना ऐसे भी होते हैं बुतों ने बन के बुत सज्दा कराया पहले बुत-गर से 'सफ़ी' को मुस्कुरा कर देख लो ग़ुस्से से क्या हासिल उसे तुम ज़हर क्यों देते हो जो मरता है शक्कर से