सहर से एक किरन की फ़क़त तलब थी मुझे तमाम रात मगर बेकली ग़ज़ब थी मुझे कनार-ए-शाम पे सुर्ख़ी शफ़क़ की दौड़ गई लहू उगलने की यूँ आरज़ू भी कब थी मुझे पते की इक न कही सुब्ह के उजालों में ये और बात कि अज़बर हदीस-ए-शब थी मुझे मैं तेरी रूह की पहनाई में उतर न सका कि तुझ से सिर्फ़ तमन्ना-ए-लब-ब-लब थी मुझे मैं ख़ुद ही बज़्म भी और ख़ुद ही बज़्म-आरा भी कि नागवार हर इक महफ़िल-ए-तरब थी मुझे मैं अपने वक़्त का सुक़रात तो नहीं लेकिन जहाँ पे बात छिड़ी फिर वहीं पे शब थी मुझे मैं अपनी ज़ात के अंदर कभी न झाँक सका ये और बात कि ये आरज़ू भी कब थी मुझे फ़सील-ए-शब से कोई अब पुकारता है तो क्या मिला न एक भी उस दिन तलाश जब थी मुझे शिकायत-ए-शब-ए-हिज्राँ कभी न की 'मोहसिन' हिकायत-ए-ग़म-ए-दिल वर्ना याद सब थी मुझे