सहरा दिखाई दे न समुंदर दिखाई दे अब तक वही बिछड़ने का मंज़र दिखाई दे क्या क्या मिरी नज़र ने दिए हैं मुझे फ़रेब मंज़र भी अब मुझे पस-ए-मंज़र दिखाई दे था क्या हसीन शहर कभी शहर-ए-दिल कि अब दर ही दिखाई दे न कोई घर दिखाई दे मिलते हैं कैसे लोग मोहब्बत के नाम पर कब उन की आस्तीनों में ख़ंजर दिखाई दे क़ुर्बत से उस की राज़ हुआ आश्कार ये वो खोखला दरख़्त तनावर दिखाई दे क्या बात है कि कूचा-ओ-बाज़ार में हमें 'नसरीन' जो दिखाई दे पत्थर दिखाई दे