साहबो मंज़िल-ए-जानाँ की तरफ़ जाना मत और जाना तो कहानी कोई दोहराना मत गुल खिला देगा महकते हुए चेहरों का तिलिस्म शहर-ए-आईना दिल-ए-ज़ार को दिखलाना मत मुझ को चाहा है तो बख़्शो मिरी चाहत को दवाम बन के रह जाना ढली रात का अफ़्साना मत वस्ल की चाह में रुकना न किसी जिस्म के पास दौलत-ए-हिज्र को सौदाइयो ठुकराना मत सर-बुरीदा सी गुज़र जाना शहीदों की तरह तितलियो दिल के दबिस्ताँ में ठहर जाना मत उल्फ़तें सब को मयस्सर नहीं होतीं प्यारे तिश्ना लम्हों की मुलाक़ात से उकताना मत मक़्तल-ए-इश्क़ न अब कूचा-ए-क़ातिल 'राही' शहर-ए-बे-ख़्वाब में जाते हुए घबराना मत