सहने को हिज्र जब भी तमन्ना मज़ीद की मैं ने वजूद-ए-शेर से लज़्ज़त कशीद की देखा था रात ख़्वाब में सहरा-मिज़ाज शख़्स नगरी भी लग रही थी वो ख़्वाजा फ़रीद की ऐ मुफ़्तियान-ए-शहर तुम्हें इल्म ही नहीं लोगों ने मेरे चाँद को देखा तो ईद की ये सुन्नत-ए-हुसैन है सो इस लिए भी मैं बैअ'त क़ुबूल की न किसी भी यज़ीद की ख़ुशियाँ तो दस्तियाब थीं बाज़ार में मगर दानिस्ता मैं ने हिज्र की दौलत ख़रीद की