सहरा बसे हुए थे हमारी निगाह में ख़ेमा लगा न पाए हम आब-ओ-गियाह में सदियाँ हमारी राह को रोके खड़ी रहीं और ज़िंदगी गुज़रती रही साल-ओ-माह में बस जाते हम कहीं भी समुंदर के दरमियाँ आया मगर न कोई जज़ीरा ही राह में इक बार हाथ लग गए उस अंधी भीड़ के वापस न लौट पाए हम अपनी पनाह में वक़्त और मक़ाम से न कभी हम गुज़र सके गुज़रे मक़ाम-ओ-वक़्त फ़क़त रस्म-ओ-राह में कुछ देर ज़ेर-ए-पा जो ठहरती कोई ज़मीं हम भी क़याम करते किसी जाए-गाह में 'बेताब' पस्तियों से निकल ही न पाए हम क्या क्या बुलंदियाँ थीं हमारी निगाह में