सैद हूँ रोज़-ए-अज़ल से आलम-ए-असबाब का और वा रखता हूँ सीने में दरीचा ख़्वाब का सामने आते ही उस के मेरी वहशत जाग उठी ध्यान रहता था मुझे यूँ तो बहुत आदाब का कार-ज़ार-ए-इश्क़ से बाहर निकल कर देखिए सारी बस्ती में उजाला है उसी कमयाब का आलम-ए-रूया मैं देखा था जसे मैं ने कभी अक्स है अब मेरी आँखों में उसी मेहराब का आ गया आख़िर किताब-ए-इश्क़ का अंजाम भी दूर तक बिखरा हुआ मंज़र है पहले बाब का शाम है और सुर्ख़ पेड़ों के दहकते साए भी नींद में बहता हुआ धारा है जू-ए-आब का किस लिए 'साजिद' बनाता हूँ घरौंदे रेत के रुख़ बदल सकता है थोड़ी देर में सैलाब का