सैल-ए-गिर्या का सीने से रिश्ता बहुत यानी हैं इस ख़राबे में दरिया बहुत मैं ने उस नाम से शाम रंगीन की मैं ने उस के हवाले से सोचा बहुत देखने के लिए सारा आलम भी कम चाहने के लिए एक चेहरा बहुत इस से आगे तो बस ख़्वाब ही ख़्वाब थे मैं ने उस को मुझे उस ने देखा बहुत मैं भी उलझा हूँ मंज़र के नैरंग से मेरे पैरों से लिपटी है दुनिया बहुत रफ़्तगाँ के क़दम जैसे आहू का रम जाने वालों को रस्तों ने रोका बहुत जंग-जू मारकों में हुए सुर्ख़-रू बस्तियाँ बैन करती हैं तन्हा बहुत