साज़-ए-हस्ती का अजब जोश नज़र आता है इक ज़माना हमा-तन-गोश नज़र आता है हसरत-ए-जल्वा-ए-दीदार हो पूरी क्यूँकर वो तसव्वुर में भी रू-पोश नज़र आता है देखते जाओ ज़रा शहर-ए-ख़मोशाँ का समाँ कि ज़माना यहाँ ख़ामोश नज़र आता है आप के नश्तर-ए-मिज़्गाँ को चुभो लेता हूँ ख़ून-ए-दिल में जो कभी जोश नज़र आता है आप ही सिर्फ़ जफ़ा-कोश नज़र आते हैं सारा आलम तो वफ़ा-कोश नज़र आता है मौसम-ए-गुल न रहा दिल न रहा जी न रहा फिर भी वहशत का वही जोश नज़र आता है शाना-ए-यार पे बिखरी तो नहीं ज़ुल्फ़-ए-दराज़ हर कोई ख़ानुमाँ बर-दोश नज़र आता है जल्वा-ए-क़ुदरत-ए-बारी का मुअम्मा न खुला रू-ब-रू रह के भी रू-पोश नज़र आता है फिर ज़रा ख़ंजर-ए-क़ातिल को ख़बर दे कोई ख़ून-ए-'बिस्मिल' में वही जोश नज़र आता है