साज़-ए-हस्ती पे अभी झूम के गा ले मुझ को ज़िंदगी से ये कहो और न टाले मुझ को मैं ने तो सुब्ह-ए-दरख़्शाँ की दुआ माँगी थी क्यूँ मिले ज़र्द चराग़ों के उजाले मुझ को तुझ को पाने के लिए उमर गँवा दी मैं ने हक़ तो बनता है कि तू अपना बना ले मुझ को ये तो साक़ी की जगह और कोई बैठा है ये जो गिन गिन के पिलाता है पियाले मुझ को मैं ज़माने के झमेलों में धँसा जाता हूँ उस से कहिए कि वो दलदल से निकाले मुझ को अपनी ख़ामोश तमन्ना की अज़िय्यत से निकल जो सुनाना है ज़रा खुल के सुना ले मुझ को ना-तवानी ही मिरी ताब-ओ-तवाँ है 'आदिल' मैं ने कब तुझ से कहा था कि बचा ले मुझ को