सज्दा तिरे क़दमों पे रवा मान चुके हैं हम तुझ को मोहब्बत में ख़ुदा मान चुके हैं आँखों से है तख़सीस न होंटों से कि हम लोग सर-ता-ब-क़दम तुझ को नशा मान चुके हैं चुप-चाप से बैठे हैं हर इक नक़्श मिटा कर थक हार के दुनिया का कहा मान चुके हैं ऐ चारागरो ज़हमत-ए-बे-जा न करो तुम ख़ुद दर्द को हम लोग दवा मान चुके हैं क्यों आज तुम इस बात को फिर छेड़ रहे हो जिस बात का 'मुज़्तर' वो बुरा मान चुके हैं