सज्दे जबीन-ए-शौक़ के अब राएगाँ नहीं तू बे-हिजाब अंजुमन-आरा कहाँ नहीं मैं मीर-ए-कारवाँ हूँ पस-ए-कारवाँ नहीं हाथों में मेरे दामन-ए-मंज़िल कहाँ नहीं मौजूदगी-ए-जन्नत-ओ-दोज़ख़ से है अयाँ रहमत है एक बहर मगर बे-कराँ नहीं चाहे हिजाब में रहो तो चाहे बे-हिजाब हम तुम ही तो हैं और कोई दरमियाँ नहीं बर्क़-ए-जमाल-ए-दोस्त न हो इस पे शोला ज़न तेरा भी घर है सिर्फ़ मिरा आशियाँ नहीं दिलचस्पियाँ बहुत सी हैं इस इख़्तिसार में कुछ ग़म नहीं शबाब अगर जावेदाँ नहीं साकित फ़लक को मुफ़्त में ज़ालिम बना दिया गर्दिश में है ज़मीन फ़क़त आसमाँ नहीं नाकाम-तर हैं मेरी शिकस्ता-नसीबियाँ 'मख़मूर' सिर्फ़ ज़ीस्त ही ना-कामराँ नहीं