शो'ला सा कोई बर्क़-ए-नज़र से नहीं उठता अब कोई धुआँ दिल के नगर से नहीं उठता वो रौनक़-ए-काशाना-ए-दिल बुझ सी गई है अब शोर कोई इस भरे घर से नहीं उठता कब ताक़त-ए-शोरीदा-सरी सर को जो टकराएँ वो ज़ोफ़ है अब सर तिरे दर से नहीं उठता इस जुम्बिश-ए-मिज़्गाँ का हूँ शर्मिंदा-ए-एहसाँ ये बार-ए-गराँ अपनी नज़र से नहीं उठता लब्बैक कहे नाक़ा-ए-लैला को भला कौन अब क़ैस कोई गर्द-ए-सफ़र से नहीं उठता तब्दील हुई आब-ओ-हवा शहर-ए-वफ़ा की अब दर्द का तूफ़ान इधर से नहीं उठता यूँ राह-ए-तलब देती है आवाज़ हमें भी अब पाँव किसी बात के डर से नहीं उठता दीवाने को नींद आ गई तारीकी-ए-शब में सोया है तो अब ख़ौफ़-ए-सहर से नहीं उठता यारो उसे देखो कहीं 'बाक़र' तो नहीं है पहरों जो किसी राहगुज़र से नहीं उठता