साक़ी के नाम-लेवा मयख़ाने रह गए हैं मय-ख़ानों में भी ख़ाली पैमाने रह गए हैं बे-मक़्सद-ए-जुनूँ हैं मजनूँ जो दश्त में हैं लैला नहीं रही है दीवाने रह गए हैं बन कर जो इक हक़ीक़त दुनिया पे छा गए थे दुनिया में आज उन के अफ़्साने रह गए हैं महफ़िल रहे तुम्हारी महफ़िल में तुम रहो अब वो क्या रहें जो हो कर बेगाने रह गए हैं पहचानना अब उन को दुश्वार हो गया है जो लोग अपने जाने-पहचाने रह गए हैं क़ब्रों में सोने वालो तुम को पुकारते हैं इशरत-कदे जो बन कर ग़म-ख़ाने रह गए हैं देख ऐ निगाह-ए-इबरत आसार-ए-अहद-ए-माज़ी आबादियों के हो कर वीराने रह गए हैं ऐ गोश-ए-इबरत उन को तू सुन सके तो सुन ले ये कुछ हक़ीक़तों के अफ़्साने रह गए हैं ऐ शम-ए-सुब्ह-ए-महफ़िल उन को जला के बुझना दो-चार और तेरे परवाने रह गए हैं दीवानों को जो 'बिस्मिल' बदनाम कर रहे हैं दीवानों में अभी कुछ फ़रज़ाने रह गए हैं