साक़ी की इक निगाह के अफ़्साने बन गए कुछ फूल टूट कर मिरे पैमाने बन गए काटी जहाँ तसव्वुर-ए-जानाँ में एक शब कहते हैं लोग उस जगह बुत-ख़ाने बन गए जिन पर न साए ज़ुल्फ़-ए-ग़ज़ालाँ के पड़ सके एहसास की निगाह में वीराने बन गए जो पी सके न सुर्ख़ लबों की तजल्लियाँ दुनिया के तजरबात से अनजाने बन गए 'साग़र' वही मक़ाम है इक मंज़िल-ए-फ़राज़ अपने भी जिस मक़ाम पे बेगाने बन गए