साक़ी की हर निगाह में सहबा थी जाम था कल शग़्ल-ए-मय-कशी का हमें इज़्न-ए-आम था हम कुश्ता-ए-ख़िज़ाँ सही ऐ दोस्तो मगर आसूदा-ए-बहार हमारा ही नाम था मेरे बग़ैर आज वो कितने हैं शादमाँ जिन को मिरे फ़िराक़ में जीना हराम था देखा जो मय-कदे में उसे और बढ़ गया मेरी नज़र में शैख़ का जो एहतिराम था हम बे-नियाज़ियों का गिला तुझ से क्या करें ऐ दोस्त अपना जज़्बा-ए-उल्फ़त ही ख़ाम था उन से नज़र मिली कि नई ज़िंदगी मिली उन की निगाह-ए-नाज़ में कैसा पयाम था दार-ओ-रसन को चूम के क़ुर्बान हो गया 'जाँबाज़' बिल-यक़ीन ये तेरा ही काम था