साक़ी शराब है तो ग़नीमत है अब की अब फिर बज़्म होगी जब तो समझ लीजो जब की जब साग़र के लब से पोछिए उस लब की लज़्ज़तें किस वास्ते कि ख़ूब समझता है लब की लब कम-फ़ुर्सती से उम्र की अपनी हज़ार हैफ़ जितनी थीं ख़्वाहिशें वो रहीं दिल में सब की सब सुन कर वो कल की आज न हो किस तरह ख़फ़ा ऐ ना-शनास-ए-तब्अ कही तू ने कब की कब फूला हुआ बदन में समाता नहीं 'नज़ीर' वो गुल-बदन जो पास रहा उस के शब की शब