साक़िया किस को हवस है कि पियो और पिलाओ अब वो दिल ही न रहा और उमंगें न वो चाव रहने दे ज़िक्र ख़म-ए-ज़ुल्फ़-ए-मुसलसल को नदीम उस के तो ध्यान से भी होता है दिल को उलझाओ कूचा-ए-इश्क़ में जाना न कभी भूल के तुम है वहाँ आब-ए-दम-ए-तेग़ का हर जा छिड़काव क्या ज़रूरत कि हसीनों के दहन की ख़ातिर तुम कमर बाँध के मुल्क-ए-अदमिस्ताँ तक जाओ क्यूँ मिटो नक़्श-ए-क़दम साँ किसी रफ़्तार पे तुम बैठे बिठलाए ग़रज़ क्या है कि इक हश्र उठाओ किस तरह कोई उन्हें राह पे लाए यारब और बरगश्ता हुए जाते हैं जितना समझाओ ना-ख़ुदा बन के ख़ुदा पार कर इस का बेड़ा बे-तरह फँस गई है हिन्द की मंजधार में नाव ये नहीं है कि नहीं क़ाबिलिय्यत कुछ उन में हिम्मतें हारने का हो गया कुछ उन का सुभाव ग़र्ब है मशरिक़-ए-ख़ुर्शेद-ए-उलूम-ओ-हिक्मत अब ये लाज़िम है कि लौ अपनी उधर को ही लगाओ जो क़दामत पे उड़े बैठे हैं वो हैं गुमराह उन से बचना हैं ग़ज़ब उन के उतार और चढ़ाओ एशिया के तो तुम्हें नाम से कहना ही नहीं वही सूरत है उसे कितना ही उलटो पलटाओ रस्म-ओ-मज़हब से न तुम ग़ैर बनो आपस में हो चलत में कोई या ठाह में सम पर मल जाओ बस करो रहने भी दो वाज़-ओ-नसीहत 'कैफ़ी' नासेहों को तो यहाँ पड़ती हैं बाज़ार के भाव