ऐ इश्क़ शाद-काम हूँ तेरे शुऊ'र से मुझ को गिला नहीं है किसी के ग़ुरूर से ये इंतिहा-ए-होश है आगे ख़बर नहीं आवाज़ दे रहा था कोई मुझ को दूर से क़तरे की क्या बिसात पता भी नहीं चला इक मौज उठ के रह गई दरिया-ए-नूर से देता रहे ज़माना फ़रेब-ए-नशात अब सर-ख़ुश हैं हम तो बादा-ए-ग़म के सुरूर से क़ुर्बान तेरी नीम-निगाही के देख फिर आती है मुझ को बू-ए-मोहब्बत ग़ुरूर से ऐ बर्क़-ए-हुस्न इज़्न-ए-तमाशा कभी हमें मूसा नहीं जो लौट के आ जाएँ तूर से ये हुस्न ये शबाब ये मा'सूमी-ए-जमाल तुम दाद लो ख़ुदा की क़सम जा के हूर से कम्बख़्त उस ने और भी मजबूर कर दिया बाज़ आए हम इलाही दिल-ए-ना-सुबूर से 'फ़ाइक़' मिरे मज़ाक़ में बे-माएगी सही दाद-ए-सुख़न-तलब हूँ मगर ज़ी-शुऊर से