किसी की याद फिर ख़ल्वत-नशीं मा'लूम होती है तबीअ'त आज-कल अंदोह-गीं मा'लूम होती है मोहब्बत का हर इक सज्दा भी मेराज-ए-मोहब्बत है मक़ाम-ए-अर्श अब मेरी जबीं मा'लूम होती है कभी शबनम कभी तारे कभी तुम मुस्कुराते हो मोहब्बत की हर इक साअ'त हसीं मा'लूम होती है ज़रा तुम हाथ रक्खो या ख़लिश दर्द-ए-मोहब्बत की यहीं मा'लूम होती है यहीं मा'लूम होती है अगर तुम मुस्कुराओ भी तो दिल पर चोट लगती है तुम्हारी हर अदा दर्द-आफ़रीं मा'लूम होती है इधर रू-पोश हैं तारे उधर घर में उदासी है शब-ए-ग़म क्या क़यामत-आफ़रीं मा'लूम होती है हर इक ज़र्रे में रंगीनी है कि ख़ूनी मोहब्बत की तुम्हारे ही ये कूचे की ज़मीं मा'लूम होती है जहाँ रखता हूँ सर अपना सिमट आती है कुल दुनिया मुझे तक़्दीस-ए-सज्दा अब कहीं मा'लूम होती है मोहब्बत की मैं किस मंज़िल में हूँ अल्लाहु-अकबर अब मुसीबत भी मसर्रत-आफ़रीं मा'लूम होती है ज़रा ठहरो मुझे कहने भी दो रूदाद-ए-ग़म अपनी अजब-ख़ोशी तुम्हारी नुक्ता-चीं मा'लूम होती है मैं सहरा में भी जन्नत के मज़े लेता हूँ ऐ 'फ़ाइक़' तबीअ'त ख़ुद मिरी हुस्न-आफ़रीं मा'लूम होती है