समझ में आती है बादल की आह-ओ-ज़ारी अब वो मेहरबान मुझे भी बहुत रुलाता है मुमासलत ही नहीं साथ रहने वालों में कोई बताए मुझे किस से मेरा नाता है लगा कि क़ुफ़्ल मिरे ख़्वाब के दरीचों को तिरा ख़याल अज़ाबों से क्यूँ डराता है समझ में आता नहीं ज़िंदा हैं कि मुर्दा हैं कभी तो मारता है और कभी जिलाता है हज़ारों तारे हैं तेरी हथेलियों में मगर तू आ के घर से मेरे चाँद क्यूँ चुराता है