समझ में ख़ाक ये जादूगरी नहीं आती चराग़ जलते हैं और रौशनी नहीं आती किसी के नाज़ पे अफ़्सुर्दा-ख़ातिरी दिल की हँसी की बात है फिर भी हँसी नहीं आती न पूछ हैअत-ए-तरफ़-ओ-चमन कि ऐसी भी बहार बाग़ में बहकी हुई नहीं आती हुजूम-ए-ऐश तो इन तीरा-बस्तियों में कहाँ कहीं से आह की आवाज़ भी नहीं आती जुदाइयों से शिकायत तो हो भी जाती है रिफ़ाक़तों से वफ़ा में कमी नहीं आती कुछ ऐसा मह्व है असबाब-ए-रंज-ओ-ऐश में दिल कि ऐश ओ रंज की पहचान ही नहीं आती सज़ा ये है कि रहें चश्म-ए-लुत्फ़ से महरूम ख़ता ये है कि हवस पेशगी नहीं आती ख़ुदा रखे तिरी महफ़िल की रौनक़ें आबाद नज़ारगी से नज़र में कमी नहीं आती बड़ी तलाश से मिलती है ज़िंदगी ऐ दोस्त क़ज़ा की तरह पता पूछती नहीं आती