समझ रहे थे कि अपनी सुधर गई दुनिया हमें तो मुफ़्त में बदनाम कर गई दुनिया मुतालबों से नहीं मिल सकी नजात कभी हवस के ज़िंदा तक़ाज़ों से भर गई दुनिया हर एक आँख में चढ़ता हुआ अना का नशा हर एक हर्फ़-ए-वफ़ा से मुकर गई दुनिया असीर कर के तबाही के मुझ को दलदल में बताए कौन ये मुझ को किधर गई दुनिया वो क्या हुए मिरे पुर-कैफ़ पुर-सुकूँ लम्हे मुझे तलाश है जिस की किधर गई दुनिया कटी हुई है हर इक शाख़ पेड़ से 'मोहसिन' लो बर्ग-ए-ख़ुश्क सी अब के बिखर गई दुनिया