समझ सका न कोई राज़-ए-हुस्न बेगाना जुज़ ईं नियाज़-पसंदी-ए-क़ल्ब-ए-दीवाना ये चाँदनी ये फ़ज़ा ये हवा-ए-मय-ख़ाना दवाम हो तो मिले मुझ को एक पैमाना तिरी निगाह की तौसीफ़ हो रही है मगर मिरी ही तिश्ना-लबी भर रही है पैमाना जहाँ पहुँच न सका कोई जज़्बा-ए-मुहतात वहाँ गया है मिरा ज़ौक़-ए-सरफ़रोशाना नहीं है सरमद-ओ-मंसूर पर ही ख़त्म जुनूँ मुझे भी लोगों ने अक्सर कहा है दीवाना शिकायत-ए-ग़म-ए-दिल को ज़बाँ नहीं खुलती कि इस निगाह के अंदाज़ हैं करीमाना तमाम बज़्म में इक हम ख़मोश बैठे हैं सुना रहे हैं सभी तुझ को तेरा अफ़्साना यक़ीन रख कि तिरी अंजुमन से हम भी कभी तिरी ही तरह से गुज़़रेंगे बे-नियाज़ाना गुज़ारनी है शब-ए-ग़म किसी तरह ऐ दोस्त न अपनी कोई कहानी न कोई अफ़्साना न पूछ मुझ से किसी शय की अस्ल ऐ हमदम कि देखता हूँ मैं आबादियों में वीराना अजब इ'ताब-ए-मशिय्यत है मुझ पे ऐ 'आली' गदा बना के दिया है मिज़ाज शाहाना