समझ सके जो मिरी बात वो कलाम करे नहीं समझता तो बस दूर से सलाम करे जिसे भी चाहिए ख़ैरात में मिरी आवाज़ वो पहले मेरी ख़मोशी का एहतिराम करे किवाड़ खुलते ही वर्ना बदन से लिपटेगी उसे कहो कि उदासी का इंतिज़ाम करे मुआमलात जहाँ उस के वास्ते छोड़े और एक वो है जो फ़ुर्सत से अपने काम करे मुझे सुकूँ ही वो आवाज़ सुन के आता है तो क्यों न रब्त-ए-मुसलसल वो मेरे नाम करे