समय से पहले भले शाम-ए-ज़िंदगी आए किसी तरह भी उदासी का घाव भर जाए हम अब उदास नहीं सर-ब-सर उदासी हैं हमें चराग़ नहीं रौशनी कहा जाए जो शेर समझे मुझे दाद-वाद देता रहे गले लगाए जिसे ग़म समझ में आ जाए गए दिनों में कोई शौक़ था मोहब्बत का अब इस अज़ाब में ये ज़ेहन कौन उलझाए किसी के हँसने से रौशन हुई थी बाद-ए-सबा कोई उदास हुआ तो गुलाब मुरझाए ये एक दुख ही दबा रह गया है आँखों में वो एक मिसरा जिसे शेर कर नहीं पाए अगर हूँ ग़ुस्से में फिर भी मैं चाहता ये हूँ मैं सिर्फ़ हिज्र कहूँ और फ़ोन कट जाए