समझा कोई भी चाल न उस चाल-बाज़ की करते रहे बयाँ सभी होंटों की नाज़ुकी दर पर ख़ुदा के खींच के लाया था उस को इश्क़ काफ़िर को पड़ गई थी ज़रूरत नमाज़ की हम ने भी ख़ुद के क़त्ल में छोड़ी नहीं कसर उस ने भी दुश्मनों से बहुत साज़-बाज़ की कानों की कच्ची निकली वो दीवार गाँव की तश्हीर कर रही है फ़क़ीरों के राज़ की ख़त हूँ मैं आख़िरी किसी 'आनिस-मुईन' का तू याद रहने वाली ग़ज़ल है 'फ़राज़' की