समझना फ़हम गर कुछ है तबीई से इलाही को शहादत ग़ैब की ख़ातिर तो हाज़िर है गवाही को नहीं मुमकिन कि हम से ज़ुल्मत-ए-इमकान ज़ाइल हो छुड़ा दे आह कोई क्यूँ के ज़ंगी से सियाही को अजब आलम है ईधर से हमें हस्ती सताती है उधर से नीस्ती आती है दौड़ी उज़्र-ख़्वाही को न रह जावे कहीं तू ज़ाहिदा महरूम रहमत से गुनहगारों में समझा करियो अपनी बे-गुनाही को न लाज़िम नीस्ती उस को न हस्ती ही ज़रूरी है बयाँ क्या कीजिए ऐ 'दर्द' मुमकिन की ननाही को