समझते क्या हैं इन दो चार रंगों को उधर वाले तरंग आई तो मंज़र ही बदल देंगे नज़र वाले इसी पर ख़ुश हैं कि इक दूसरे के साथ रहते हैं अभी तन्हाई का मतलब नहीं समझे हैं घर वाले सितम के वार हैं तो क्या क़लम के धार भी तो हैं गुज़ारा ख़ूब कर लेते हैं इज़्ज़त से हुनर वाले कोई सूरत निकलती ही नहीं है बात होने की वहाँ ज़ोअम-ए-ख़ुदा-वंदी यहाँ जज़्बे बशर वाले मफ़ाईलुन का पैमाना बहुत ही तंग होता है जभी तो शेर हम कहते नहीं हैं दिल जिगर वाले घरों में थे तो वुसअ'त दश्त की हम को बुलाती थी मगर अब दश्त में आए तो याद आते हैं घर वाले जो मुस्तक़बिल से पुर-उम्मीद हो वो शायर-ए-मुतलक़ 'शुजा-ख़ावर' से अपनी फ़िक्र की इस्लाह करवा ले